Aarthik Sanrachna Aur Dharm

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ISBN 9789350024607
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795.00

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ISBN 9789350024607

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सामान्य जन-जीवन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं के सर्वांगीण विकासक्रम का निरूपण बृहत्तर भौतिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में करने की आवश्यकता, और शायद अपरिहार्यता के एहसास का प्रतिफल है यह कृति |

लगभग चार शताब्दियों (सा.यु.पू. लगभग 700-300) के काल के दौरान जन-जीवन के सभी पक्षों का निरूपण करने वाली यह रचना कुछ नई शब्दावलियों की ओर इशारा कराती है | इस काल से सम्बंधित दीर्घ शताब्दी और कुछ अन्य बड़े मुद्दों की विस्तृत चर्चा की गई है | इसके अतिरिक्त इस संपूर्ण काल को वैदिकोत्तर काल कहा गया है, जिसे उत्तर वैदिक काल (सामान्यतया सर्का 1000 – सर्का 500 बी.सी.) से भिन्न समझना चाहिए | मौजूदा परिपाटी से हटकर इसमें संस्कृत, पालि और प्राकृत में उपलब्ध ब्राह्मणीय, बौद्ध और जैन साहित्य को ‘पवित्र’ एवं ‘धर्मं ग्रंथों’ ( ‘Sacred’ and ‘Scriptures’) वाली श्रेणियों में रखने की प्रवृत्ति का विरोध किया गया है | अक्सर पालि और प्राकृत नामों और शब्दों का संस्कृत-करण कर दिया जाता है| यहां इस प्रवृत्ति को भी नकारते हुए इन सभी साहित्यिक कृतियों की मूल भाषाई शब्दावली का ही प्रयोग किया गया है | सामान्य रूप से प्रयुक्त होने वाले B.C और A.D के स्थान पर अब अधिक प्रचलित होते हुए यहाँ क्रमशः सा.यु.पू.(BCE) और वर्त्तमान/सामान्य युगीन (CE) का इस्तेमाल किया गया है| यह नई शब्दावली काल गणना में ईसा मसीह और इसाईयत के प्रभाव को नगण्य बनाती है |

इस अध्ययन काल के दौरान प्राचीन भारतीय धर्मों के इतिहास में बुद्ध, महावीर व उनके जैसे अनेकानेक धार्मिक चिंतकों के क्रांतिकारी विचारों के कारण इस काल को भारत का विवेक युग कहा जा सकता है | किन्तु यह धार्मिक और वैचारिक क्रांति कोई एकाकी विकासक्रम न था | सामान्य जन-जीवन के सभी पक्षों में दूरगामी परिवर्तन हो रहे थे| आर्थिक परिदृश्य विशेष रूप से नई दिशाओं में अग्रसर हो रहा था | धात्विक मुद्रा-व्यवस्था, लौह तकनीक का विशाल भौगोलिक क्षेत्र में प्रसार, और बढ़ते व्यापार तंत्र ने नागरीकरण को तो बल प्रदान किया ही, परन्तु साथ-साथ ग्रामीण वातावरण और कृषकों की उत्पादन क्षमताओं को भी असीम रूप से प्रभावित किया | इस बदलते भौतिक माहौल ने समाज की वर्ण और जातिगत विषमताओं और परिवर्तनशीलता को नई गति प्रदान की | यह कृति भारतीय इतिहास की इन चार महत्वपूर्ण शताब्दियों का सर्वांगीण मूल्यांकन है, जिसमें पाठकों को इस काल से सम्बंधित पाठों/स्रोतों से विस्तृत रूप में अवगत कराने का प्रयास भी किया गया है |

भारत के विवेक युग की इस संरचना में सात मानचित्रों के अलावा छब्बीस फलकों और रेखाचित्रों को भी शामिल किया गया है |

प्रोफेसर कृष्ण मोहन श्रीमाली ने सेंट स्टीफंज़ महाविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर लगभग पैंतालीस वर्षों तक अध्यापन कार्य किया | इतिहास और पुरातत्व के प्रख्यात जर्नल्स और शोध प्रबंधों में प्रकाशित अनेक शोध पत्रों के अतिरिक्त उनके कुछ प्रमुख प्रकाशन हैं : हिस्ट्री ऑफ़ पंचाल (दो खण्डों में), दि एग्रेरियन स्ट्रक्चर ऑफ़ सेंट्रल इंडिया एंड नॉर्दन डेक्कन : अ स्टडी इन वाकाटक इन्स्क्रिप्शंज़, दि ऐज ऑफ़ आयरन ऐंड दि रेलिजस रेवोल्यूशन (सर्का 700 – सर्का 350 बी.सी.), धर्म, समाज और संस्कृति, इत्यादि | उनके द्वारा संपादित कुछ महत्त्वपूर्ण शोध ग्रंथों में एस्सेज़ ऑन इंडियन आर्ट, रेलिजन एंड सोसाइटी, आर्कैयोलौजी सिंस इन्डिपेंडेंस, रीज़न एंड आर्कैयोलौजी, ए कौम्प्रीहेन्सिव हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया ( खंड 4; प्रो. रामशरण शर्मा के साथ संयुक्त रूप से)| प्रकाशनाधीन ग्रन्थ हैं : प्राचीन भारतीय धर्मों का इतिहास और इतिहास, पुरातत्व और विचारधारा | प्रोफेसर श्रीमाली इतिहास, पुरातत्व और मुद्राशास्त्र से सम्बंधित अनेक अखिल भारतीय संस्थाओं से जुड़े हुए हैं | आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश की इतिहास परिषदों के अध्यक्ष रहे हैं | वे इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के कोषाध्यक्ष और जेनेरल सेक्रेटरी तथा इंडियन सोशल साइंस अकादमी के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं | भारतीय इतिहास लेखन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसारण और भारत में साम्प्रदायिक एवं फासीवादी ताकतों का विरोध करने में सदा तत्पर रहते हैं |

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